क्यों आजकल सुबह भी सुबह नहीं होती....
होता है सब उजला , पर रोशनी नहीं होती....
दिन ढलने पर भी जब शाम धुंधली नहीं होती,
फिर चाँद निकलने पर क्यों चहुँ ओर चांदनी नहीं होती
क्यों आजकल सुबह भी सुबह नहीं होती...
हवा है, प्रदूषित सही, पर है
साँस लेता हूँ, चाहूँ या न चाहूँ, साँस लेता हूँ
पर क्यों ये साँसें जीवन से भरी नहीं होती
क्यों आजकल सुबह भी सुबह नहीं होती...
समाज है, समाज मे इंसान भी है
और सब के चेहरों पर एक हलकी मुस्कान भी है
पर क्यों किसी से मिलने पर 'दिल' मे ख़ुशी नहीं होती
क्यों आजकल सुबह भी सुबह नहीं होती...
न जाने क्यों
कुछ भारी सा है, कुछ तनाव है
बातचीत होती तो है, फिर भी एक खिचांव है
बातों मे दिखावा होता है...क्यों अपनेपन की मिश्री घुली नहीं होती
क्यों आजकल सुबह भी सुबह नहीं होती...
व्यक्ति है, पर व्यक्तित्व नहीं
सत्य होगा बेशक, पर सत्व नहीं
बस तत्व की तमन्ना है, आँखों मे संतुष्टि की चमक नहीं होती
क्यों आजकल सुबह भी सुबह नहीं होती...
क्यों...
Kahan se churaya he...sach bolna? agar khud likha he...then i loved it....awesm
ReplyDeleteWaah kya rachna hai, dil ko chu gayi....
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