जिंदगी की इन चार दीवारों के परे
है एक खुला मैदान...
दिन रात के इस पहलु से दूर
है एक खुला आसमान...
मुझे वही जाना है.
बैर, द्वेष, ग्लानी या गम
इन सब से परे है एक करम...
पाप- पुण्य, जनम और मरण
इनके ऊपर है एक धरम ...
मुझे वही अपनाना है.
ये मोह-माया, कोई अपना कोई पराया
इन सब छलावो से दूर..
यह धूप, यह छाया; क्या रूह, क्या काया
इन सब बाह्य दिखावो से दूर...
मुझे मुक्ति को पाना है
"हम" से बाँटते हर "मैं" को छोड़
हर "अहम्" को "हम" बनाना है
मुझे उस "व्योम" को पाना है!!!
राहुल। अपने ब्लॉग की एक पुरानी पोस्ट पर तुम्हारा कमेन्ट देखकर अच्छा लगा। जुड़े रहो।
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